महेश नवमी सन्देश - जुगल किशोर सोमानी

            जेष्ठ शुक्ल नवमी , हम माहेश्वरी समाज के परिजनों का जन्म -दिवस .विक्रमी संवत के २०६८ में न जाने कितने बड़े हो गए हैं हम.लेकिन अभी भी बहुत छोटे हैं , ठीक हैं कि हम विश्व की जानी - मानी व्यवसायिक कौम में माने जाते हैं , पूरे संसार में डंका बजता है हमारा. लेकिन......लेकिन हमें हमारे अन्दर बहुत कुछ ठीक - ठाक करना है. आपसी भाईचारे में भी हमारा कोई मुकाबला नहीं है किन्तु जब इस भाईचारे की आवश्यकता होती है - हम , हमारा भाईचारा , हमारा ज़मीर.....सब कुछ यकायक गायब "सा" हो जाता है.

            सबसे पहले यह बात ज़हन में समझ लें कि आज भी हमारे समाज का बहुत बड़ा तबका गांवों / कस्बों / छोटे - छोटे शहरों में रहता है , वहीँ अपनी रोजी - रोटी की जुगाड़ करता है.कुल मिला कर यह भी नक्की है कि वहीँ उनके बच्चें भी पढ़ - लिख कर बड़े होंगें . समस्या तब शुरू होती है जब हमारी ये संतानें शादी - विवाह के लाइक हो जाते हैं . अब यहाँ समस्या के भी दो रूप हो जाते हैं :

            पहला रूप ) जिनके लड़कियां विवाह योग्य हो जाती है - उनके माँ - बाप, बड़े - बड़े नगरों - महानगरों के लड़कों को अपना दामाद बनाना पसंद करते हैं . अपने रहने के गाँव / शहर की तरफ इन लोगों का ध्यान १% भी नहीं जाता है .दुःख - सुख पाकर कैसे भी कर के अपनी लाडली को बड़े शहर विदा कर ही देते हैं , भले ही वहां रहने के लिए एक रूम का ही फ्लेट क्यों न हो ! खैर , आगे देखते हैं :

            दूसरा रूप ) जिनके लड़कें शादी योग्य हो जाते हैं - अब उनको उस छोटे से गाँव / शहर में कौन लड़की दें ? चारों तरफ अपने सगे - संबधियों को समाचार करवाते / करते हैं कि हमें कुछ नहीं चाहिए सिर्फ कूँ - कूँ कन्या चाहिए , एक साड़ी में ही विदा कर वा कर ले आयेंगे हम....आदि - आदि . और आखिर में बच्चे की जवानी बीतते - बीतते अन्य समाज (कोई भी) से कहीं से भी लड़की को लाकर अपनी बहु बना लेते हैं ,उपाय भी नहीं. फिर पानी पी पी कर समाज की संस्थाओं को उलाहना भेजते हैं कि कहाँ है समाज ?

            ज़रा गंभीर होकर हमें विचार - विमर्श करना होगा . माँ बाप के साथ उन लड़कियों को भी सोचना - समझना होगा कि हमारी शादी तो जैसे - तैसे बड़े शहरों में हो जायेगी परन्तु अगर हमारे भाई बिन ब्याहें ही रह गए तो हमारा "पीहर" कहाँ रह जाएगा ! हमारे बच्चों का "माहेरा" लेकर कौन सा भाई आयेगा !! और अगर भाई की शादी विजातीय घर में हो भी गयी तो उस भाभी के साथ हमारी कितनी निभेगी !!! क्षमा करें मेरा "विजातीय" परिवारों पर कोई आक्षेप नहीं है. जब हमारे घर की लड़की भी दूसरी जाति में ब्याही जाती है तो हम भी वहां विजातीय तो कहलायेंगे !!!!

            धीर - गंभीर होकर इस समस्या का हल उन माँ - बाप को ही ढूँढना होगा जिनके लडके / लड़की विवाह योग्य हो जाते हैं . "देने और लेने के बाट एक ही रखने होंगे" हम हमारे आसपास के गाँव - शहर -नगर - महानगर में ही "साख" ढूंढें , यही समस्या का हल है. "साख" का गहरा मतलब भी यही होता है , एक दूसरे की साख जानने की सुविधा पर चिंतन करें. आज हमारे समाज में जो "तलाक" की संख्या बढ़ती जा रही है उसका प्रमुख कारण इस "साख" की खोजबीन न करना भी है .कृपया मेरे विचारों को गहराई से परखने का कष्ट करें , विश्वास करता हूँ कि काफी हद तक समस्या का हल निकल आयेगा.

            अंत में एक हार्दिक विनती-मेरे समाज के जिम्मेदार कर्णधारों से : समाज को कूटनीति / राजनीति से नहीं बल्कि सामाजिकनीति से चलायमान करें , तभी सच्ची समाज सेवा होगी.................

            सही मायनों में "श्री महेश नवमी" का यह पावन हमारा - सबका वास्तविक जन्म दिवस तभी सार्थक होगा जब हम "सच्चे माहेश्वरी " रहेंगे.समाज तो "अपने" समाज से ही बनता है .जैसे हमारा माहेश्वरी समाज वैसे ही "दूसरों" का अपना समाज. महेश नवमी भी वैसे ही "अपने" से हे मनेगी. यही कार्य तो है समाज सेवियों का...........

जय महेश !!!

Posted by :
जुगल किशोर सोमानी
कार्यकारी मंडल सदस्य,
अखिल भारतवर्षीय माहेश्वरी महासभा



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