ऊँ गं गणपतये नम:

ऊँ गं गणपतये नम:
श्री गणेशजी लोक के प्रथम पूज्य देवता हैं। गणेशजी की पूजा के बिना हमारा कोई भी मांगलिक कार्य नहीं होता है। जिसमें गणेशजी किसी न किसी रूप में वन्दना-पूजा और स्थापना न की जाती हो। गणेशजी रिध्दि-सिध्दि के दाता हैं। धनार्थी को धन, विद्यार्थी को विद्या और बाँझ स्त्री की सूनी गोद को भरने वाले दाता हैं। इसीलिए उन्हें मंगलदाता कहा गया है।



गणेशजी के बारे में कई लोक कथाएँ प्रचलित हैं, उनमें से यह कथा भी है।
एक बार पार्वती जी घर में एकेली थी। शिवजी तपस्या में लीन थे। पार्वती स्नान करने जा रही थी। द्वार पर रखवाली के लिए उन्होंने अपने शरीर से मैल उतार कर एक पुतला बनाया और उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करके उसे द्वार पर बैठा दिया और आदेश दिया कि मैं स्नान करने जा रही हूँ। जब तक मैं स्नान करके वापस न आ जाऊँ, तब तक तुम किसी को अन्दर मत आने देना। थोडी देर बाद ही 'शिवजी' तपस्या से अचानक घर लौटे। उन्होंने देखा द्वार पर कोई रक्षक बैठा है। 'शिवजी' घर के अन्दर जाने लगे।
तब उस बालक ने पार्वतीजी के आदेशानुसार शिवजी को अन्दर जाने से रोका। शिवजी को क्रोध आना स्वाभाविक था। उन्होंने कहा- अरे बालक तू मुझे मेरे ही घर में जाने से रोक रहा है, आखिर तू है कौन? बालक ने कहा- पार्वती मेरी माता है। वह अन्दर स्नान कर रही है। माता ने किसी को भी अन्दर आने से मना किया है, मैं उन्हीं की आज्ञा का पालन कर रहा हूँ।
आप कोई भी हों, अन्दर नहीं जा सकते। यह बात सुनकर शिवजी को क्रोध आ गया। दोनों में घमासान युध्द हुआ और क्रोध में आकर शिवजी ने त्रिशुल से बालक का मस्तक काट दिया और शिवजी घर में जाने लगे। इतने में पार्वतीजी स्नान करके निकलीं। शिवजी ने पार्वती को देखकर कहा। पार्वती द्वार पर किसी ढीठ बालक को बैठा दिया था, वह मुझे अन्दर ही नहीं आने दे रहा था। यहाँ तक कि उसने मुझे युध्द में परास्त कर दिया। आखिर मैंने उसका शीश काट कर अनन्त में उछाल दिया, तब मैं भीतर आया।
पार्वतीजी बाहर आईं और अपने पुत्र की दुर्दशा देखकर क्रोधित हो गईं और उसने शिवजी से कहा- तुमने अपने ही पुत्र की हत्या क्यों कर दी? पार्वती के क्रोध से ज्वालाएँ निकलने लगीं। पार्वती विकराल हो गई। उसके शरीर से ऐसी शक्तियां उत्पन्न हुई जो देवताओं को भस्म करने लगी। सारे देवता घबरा गये, शिवजी के भी होश हवाश उड गये।
सभी देवताओं ने मिलकर देवी शक्ति पार्वती की प्रार्थना की। पार्वती ने देवताओं के सम्मुख एक शर्त रखी, जब तक शिवजी स्वयं मेरे पुत्र को जीवित न करेंगे और ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों देवताओं में प्रथम पूजा का स्थान मेरे पुत्र को न देंगे, तब तक मेरा क्रोध शान्त नहीं होगा।
शिव असमंजस में पड गये। बालक का शीश तो अनन्त में चला गया था। अब उसे जीवित किस प्रकार से करें? शिव मस्तक ढूँढने निकले। रास्ते में एक हथिनी और उसका बच्चा पीठ लगाकर बैठे थे। शिव ने चुपचाप हथिनी के शिशु का मस्तक काट लिया और आकर उस बालक की धड पर रखकर उसे जीवित कर दिया। इसी बालक को शिवजी ने अपने गणों का स्वामी गणाध्यक्ष याने स्वामी बनाया। सभी देवताओं ने मिलकर गजानन्द गणेश की पूजा-प्रतिष्ठा की, तब से लोक में गणपति की पूजा सबसे पहले की जाती है।
रमेश, दवाना (म.प्र.)

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