एक गंभीर चिन्तन

एक गंभीर चिन्तन
समाज की सेवा करने के लिए हम आपस में मतभेद क्यों बढा रहे हैं? सेवा करने से पहले ही हम तन, मन और धन से थक रहे हैं फिर थके-हारे इस शरीर से सेवा कैसे होगी? मित्रों! ऐसे अनेक प्रश्न हैं जो समाज के हर प्रबुध्द को सोचने के लिए मजबूर कर रहे हैं।
सेवा के लिए सेवाधारी (सेवक) बनने की दौड में करोडों रूपये का खर्च किसी भी समाज की संस्था के लिए ठीक वैसा ही लगता है जैसे पूर्णिमा के पूर्णचन्द्र में काला दाग। आज समाज की सेवार्थ संस्थाओं में चुनाव के माध्यम से जिन कृत्यों से हम काबिज होना चाहते हैं उनमें झूठी प्रतिष्ठा के साथ स्वहिताय की भावना स्पष्ट झलकती है। बन्धुओं मेरा किसी पर कोई आरोप नहीं, परन्तु आप माने या न माने, यह कटुसत्य है कि वर्तमान के वातावरण में परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप में हम समाज के अनुभवी बुध्दिजीवियों का समर्थन खोते जा रहे हैं।
हमारे समाज की कुलोचित सेवा, त्याग, सदाचार, व्यवहार पटुता, गम्भीरता, उदात्त आचरणशीलता जैसी अनुकरणीय परम्परा आज सम्पूर्ण राष्ट्र में विख्यात है उन्हीं परम्पराओं का जो हश्र हमारे सामने हो रहा है उसे हम मौन दर्शक बन देख रहे हैं, क्या मध्यमवर्गीय बुध्दिजीवी समाज बन्धुओं के साथ हमारी भावी पीढी हमें क्षमा करेगी?
सेवा त्याग सदाचार के भावों के साथ जीने वाला हमारा समाज निश्चित ही पतन की ओर अग्रसर हो रहा है समय रहते यदि हम जागृत नहीं हुए तो समाज की प्रतिष्ठा के साथ हमारे मान-सम्मान को राष्ट्रीय स्तर पर एवं भावी पीढी के लिए सुरक्षित रखना असम्भव हो जाएगा।


श्री वल्लभ फोफलिया
जोधपुर (राज.)

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