यह तो भानुमति का कुनबा है...?

यह तो भानुमति का कुनबा है...?
चाहे जुबान जितनी फिसले, आदत जो पड गई है। समाज में बोलने पर कुछ नहीं होता, फिर समाज के बीच बोलने में क्या हर्ज? जो मर्जी बोलो। इनकी नजरों में शायद इसे ही तो लोकतंत्र कहते हैं। चुनाव के समय इन नेताओं के शब्दबाण आजकल इसी तरह चल रहे हैं। इनको फायदा ज्यादा दिखाई दे रहा है। समाज की समस्याओं से इनका कोई लेना-देना नहीं। जो किया वह वोट के लिए है।
उन्होंने जो कहा सों कहा। सभी अपनी कमजोरी को साबित करने में तूले हैं। जहां तक दूसरों की बात है उनकी खामियां गिनाओ। यह ठीक बात है कि यह लोकतंत्र का दंगल है। लोकतंत्र का यह मतलब नहीं है कि उसकी मर्यादा को भूल जाओ। पर ऐसे भाषणबाजी नेता भूलने पर ही ज्यादा विश्वास करते हैं। भूलेंगे नहीं तो भानुमति का कुनबा जुडेगा कैसे? कुनबा तो चले बाद की बात है। उससे पहले ही देखो। कौन किस कुनबे में है? पता ही नहीं चल रहा है। पार्टी की विचारधारा तो बहुत दूर की बात हो गई। असल मकसद अब पदों को हासिल करने का है। कैसे, कहां से, किस विचारधारा से, इससे किसी को कोई लेना-देना नहीं है। इसी का तो लाभ मिल रहा है, जिसे जहां निशाने पर लेना है, बाद में मौका मिलना नहीं है। चुनाव बाद तो सबकुछ जो भूल जाना है।
-एम.एम.

  इस ख़बर पर अपनी राय दें:
आपकी राय:
नाम:
ई-मेल:
 
   =   
 
ई-मेल रजिस्टर करें

अपनी बात
मतभेद के बीच मनभेद न आने दें...।

मतभेद के बीच मनभेद न आने दें...।