सेवा परम धन और वीरता की बातें

सेवा परम धन और वीरता की बातें


दुनिया मतलब की है। सब अपने स्वार्थ में रत है। वही अच्छा पुरुष है, जिसे सब बुलाते हैं कि हमारे यहाँ आओ और वही खराब पुरुष है, जिसे सब दूर-दूर करते हैं, कोई पास आने देना नहीं चाहता।
एक कमरे में दो-चार स्त्रियाँ हों और वहां एक स्त्री को और ठहरा दें तो कहेंगी कि हम नहीं चाहतीं, उनका हमारा निभाव नहीं होगा। तात्पर्य यह है कि उनसे हमें लाभ नहीं है, स्वार्थ नहीं है। स्वार्थ या लाभ होने पर सभी चाहते हैं कि हमारे यहाँ आओ।
आलसी के लिए कहीं काम नहीं है। जिसमें अकर्मण्यता है, जो अविश्वासी और अयोग्य है, उसके लिए सारी दुनिया में कहीं जगह नहीं है। हरेक आदमी यही चाहता है कि ऐसा आदमी दो जो खूब काम करे, जानकार हो, सदाचारी और विश्वासी हो, काम में दिलचस्पी लेने वाला हो। इसमें तीन बातें विपरीत हों तो कोई नहीं चाहता।
इसी प्रकार जिस स्त्री को घरवाले, पीहर वाले सब चाहें कि यहीं रहे वही ठीक है, जिसे कोई नहीं चाहे उसे धिक्कार है। ऐसा बन जाए, इतनी सेवा करे कि आवश्यकता पैदा हो जाए। कर्कशा स्त्री को नरक में भी ठौर नहीं है। नरक में जगह बहुत है, परन्तु नरक के जीव भी चाहते हैं कि झगडालू स्त्री यहाँ नहीं रहे। यही बात पुरुषों के लिए भी है। एक वैश्य भाई थे। उनके घर में पूर्व देश से एक बडी अच्छी पवित्र और उच्च श्रेणी की बहू आई। उसने देखा कि यहां सब स्त्रियाँ आपस में लडती हैं। एक तो धन के लिए लडतीं और कोई भी चीज घर में आती उसके लिए इसी प्रकार लडतीं जैसे रोटी डालने पर सब कुत्ते लडते हैं। कोई सेवा का काम आकर प्राप्त होता तो कहतीं कि तू कर ले। सब भोग में अगाडी एवं काम में पिछाडी थीं। उस बहू ने सोचा कि इस घर में कहाँ आ गई? फिर सोचा कि ईश्वर ने बडी कृपा की, जो मुझे यहाँ सेवा करने के लिए भेजा। उसकी सास तथा जेठानियों ने सब कामों की पारी बाँट रखी थी, यदि कोई बीमार हो जाती तो दूसरी स्त्रियाँ उसके बदले काम करने में आनाकानी करतीं, उस पर बहानेबाजी का आरोप लगातीं। उसने बहुत ही आग्रह करके क्रमशः सभी जेठानियों के भोजन बनाने की पारी अपने जिम्मे ले ली। उसकी सास ने पूछा तुमने ऐसा क्यों किया। उसने बताया मेरे माता-पिता ने मुझे सिखाया है कि सेवा ही परम धन है यह शरीर तो एक दिन मिट्टी में मिलने वाला है। सेवा के द्वारा भगवान् मिल जाते हैं। एक दिन श्वसुर जीने सभी बहुओं को वर्षभर के लिए बारह-बारह सािडयाँ लाकर दीं। उसने सभी जेठानियों एवं सास में वे सािडयाँ बहुत ही आग्रह, विनयपूर्वक बाँट दीं। सेवा का महत्व समझ में आने पर अब काम मैं करूँगी, मैं करूँगी यह विवाद होने लगा। भोजन का काम छोटी बहू से ले लिया गया, उसने आटा पीसने का काम प्रारम्भ कर दिया, पहले स्त्रियाँ इस कार्य को नीचा समझती थीं, अब सब आटा पीसने लगीं। छोटी बहू ने इसी प्रकार क्रमशः झाडू लगाना, पोंछा लगाना, कूएँ  से पानी खींचना आदि काम प्रारम्भ किया। उसकी सास ने इस काम में सहयोग देना प्रारम्भ कर दिया, फिर सारी बहुएँ इन कामों को करने लगीं। सभी कामों की पारी टूट गई, जिसको जो काम दीखता उसी काम को करने लग जाता, सब काम बडे उत्साह होने लगे। सबमें परस्पर प्रेम एवं सद््भाव की स्थापना हो गई। जिस घर में कलह एवं अशान्ति का एक छत्र साम्राज्य था, वही अब सुख-शान्ति-निकेतन हो गया।
युधिष्ठिर भी नरक के समीप पहुँचकर घबरा गये थे। पूछा यह कौन-सी जगह है? नरक है। द्रोपदी एवं भाइयों की आवाज आई- महाराज! यहीं ठहरिये। आपके रहने से हमें सुख होता है। दूतों ने कहा चलें तो युधिष्ठिरजी ने कहा मेरे यहां रहने से नारकी जीवों को सुख मिलता है, अतः मैं यहीं रहूँगा। इन्द्र और ब्रह्मा आये, नरक लुप्त हो गया। उन्होंने कहा कि आपने चालाकी से द्रोण को मरवाया, इस कारण हमने चालाकी से नरक दिखलाया। फिर उन्हें दिव्यदृष्टि दी, उन्होंने द्रौपदी को लक्ष्मी की जगह एवं अन्य सब भाइयों को वहाँ वैकुण्ठ में देखा।
यहाँ यही लेना है कि राजा युधिष्ठिर ने कहा- मैं यहीं रहूँगा। इसी प्रकार नई बहू पहले तो घबरायी कि नरक में आ गई, फिर सोचा कि यहाँ तो प्रभु ने मुझे सेवा करने के लिए भेजा है।
भगवान के भक्त, अच्छे जीव तो नरक में जाकर भी भजन, भक्ति का प्रचार करना चाहते हैं। नरक स्वर्ग हो जाता है, क्योंकि जहाँ भक्ति हो, कीर्तन हो, सत्संग हो वहीं स्वर्ग है। जैसे सुमित्रा ने कहा था- अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइ दिवस जहँ भानु प्रकासू।
जहाँ महात्मा भगवान् के प्रेम, गुण प्रभाव का प्रचार करते हैं, वहाँ नरक भी स्वर्ग हो जाता है। नारायण !  नारायण !  नारायण !     r

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